दमोह। (वरिष्ठ पत्रकार नारायण सिंह ठाकुर की कलम से) दमोह में पूरे ३८ साल बाद सत्तारानी ने टंडन परिवार की देहरी पर दस्तक दी है। १७ अप्रेल को मतदान और २ मई २०२१ की जीत से कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी को हार का ऐसा स्वाद चखाया, जिसने दमोह के उपचुनाव को ऐतिहासिक बना दिया। भाजपा ने यह चुनाव ऐन-केन-प्रकारेण यह चुनाव जीतने के लिये साम-दाम-दंड-भेद सब अपनाया पर दमोह की जनता को नहीं जीत पाई। जब भी होती है, जनमत की ऐसी ही जीत होती है। कांग्रेस हो, भाजपा या कोई और जनमत के प्रहार से सभी औंधे मुंह गिरते हैं। इसे धराशायी सूरमा कभी नहीं भूल पाते। साठ पार वाले, दमोह जिलेवासियों को दमोह विधानसभा का वह उपचुनाव भी याद होगा, जब १९८३ की ऐसी ही एक दिवाली के एक दिन पूर्व (वर्तमान विधायक अजय टंडन के पिता तथा) दमोह के तत्कालीन विधायक चंद्रनारायण टंडन के आकस्मिक निधन के साथ ही टंडन बिल्डिंग की राजनीति शून्य हो गई थी। तब, दमोह के लोग चंदू चाचा (चंद्रनारायण टंडन) को दमोह की राजनीति का चाणक्य कहते थे। उन दिनों चाहे जिला कांग्रेस का अध्यक्ष पद हो या नगर पालिका का अध्यक्ष, दमोह का विधायक हो या मंत्री या फिर सांसद, सारे पदों पर इसी परिवार के लोग काबिज रहते थे। और तो और, जिले के किस गांव में शिक्षक कौन होगा, इससे लेकर कलेक्टर-कप्तानों तक की तैनाती टंडन बिल्डिंग की सहमति से ही तय होती थी। यह वे दिन थे, जब दमोह से दिल्ली तक टंडन घराने की तूती बोलती थी।
तब चंदू चाचा के स्वर्गवास से रिक्त दमोह विस सीट का उपचुनाव २० मई १९८४ में हुआ था। यहां उसी उपचुनाव की चर्चा। तब, भाजपा की उम्र केवल ४ साल की थी। भाजपा ने तब अल्हड़ युवा जयंत मलैया पर दांव लगाया था, जबकि प्रभुनारायण टंडन के पुत्र डॉ. अनिल टंडन की सरकारी नौकरी छुड़वाकर कांग्रेस ने उन्हें अपना उम्मीदवार बनाया था। २०२१ के इस चुनाव में भाजपा ने जितना जोर लगाया, तब कांग्रेस सरकार ने भाजपा को हराने, इससे सौ गुनी ताकत झौंक दी थी। तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने यह उपचुनाव जीतने के लिये दमोह के सर्किट हाऊस में करीब महीने भर तक डेरा डाला। सारे निगम मंडलों के अध्यक्ष तथा स्व.मोतीलाल बोरा सहित कांग्रेस सरकार का करीब-करीब समूचा मंत्रिमंडल दमोह में तैनात कर दिया गया था। अर्जुन सिंह ने जिले भर में सैकड़ों सरपंचों सहित दमोह के हजारों लोगों से व्यक्तिगत मुलाकातें की थीं। इसके बावजूद कांग्रेस करीब ९ हजार से हारी थी।
इस बार भाजपा १७ हजार से अधिक से हारी है। चुनाव जीतने और जोर लगाती तो २७ हजार से हारती। ऐसा इसलिये कि परिणाम तो मतदान से पहले ही दिखने लगा था। सो, हजारों लोगों ने भाजपा की संभावित हार को निश्चत मानकर मतदान ही नहीं किया। सच तो यह है कि भाजपा या कांग्रेस तो चुनाव में कहीं थी ही नहीं। बस, राहुल और भाजपा को हराने का जनमत था। अजय टंडन इससे पहले दो चुनाव हार चुके थे, जनमत उन्हें जीत का स्वाद चखाने को आतुर था। अपने पिछले दो चुनावों से हटकर यह चुनाव लड़ा। अनेक भाजपा समर्थकों ने भी इस बार कांग्रेस के अजय टंडन की जीत की कामना के साथ उन्हें मतदान किया। उनके सामने भी अजय टंडन के अनेक प्लस पांईंट थे। वे राजनीतिक परिवार से हैं। किसी पद पर न रहते हुए भी लोगों के काम करा सकते हैं और कराते हैं। ६५ साल की परिपक्व आयु में विधायक बनने जा रहे हैं। अजय टंडन ने इस बार का चुनाव एक अलग और अनोखे अंदाज में बुद्धिमत्ता के साथ लड़ा। साथ ही एक भावनात्मक पत्ता (कार्ड) भी खेला। उन्होंने मतदाताओं से एक बहुत भावुक अपील की। कहा-उनके स्वर्गीय पिता का शेष कार्यकाल उनकी झोली में डाल दें। दमोह के मतदाताओं को उनकी यह भावुक अपील भा गई। मतदाता तो राहुल की भाजपा और भाजपा के राहुल को हराने पहले से तैयार बैठे थे। अजय की अपील ने दुविधा में फंसे मतदाताओं की उलझन आसान कर दी और इससे ३८ साल पहले रूठी सत्तारानी ने टंडन परिवार की देहरी पर फिर से दस्तक देकर दिवाली से ६ माह पहले ही अजय टंडन को धन्य कर दिया।
अब, भला, अजय टंडन जनमत के इस उपकार को कैसे भूल सकते हैं। उन्हें विधायक बने ६ माह बीत चुके हैं और अगले चुनाव में दो साल से भी कम समय बचा है। उनसे जनता की अपेक्षाएं अधिक और समय कम है। उनके पूर्वजों ने दमोह में बस कर जब अपने व्यवसाय के साथ राजनीति शुरू की थी, तब यह घर भरने का जरिया नहीं हुआ करती थी। पर, आज की राजनीति का चरित्र चेहरा कैसा है, सभी जानते हैं। कम समय के इस लंबे सफर को तय करने उन्हें एक साथ दो काम करने हैं। अपने स्वर्गीय पिता को अपने कार्यों से श्रद्धांजलि देना है और जनमत के उपकार-ऋण से उऋण भी होना है। हार को रार मान बैठी भाजपा ने दमोह के विकास की गति को ठहराव दे रखा है। ऐसा लोग अनुभव करने लगे हैं। हार में-जीत में इस परिवार ने कभी दल-बदल की राजनीति नहीं की। प्रेमशंकर धगट, रघुवर प्रसाद मोदी, पं. कुंजबिहारी लाल गुरू और विजय कुमार मलैया जैसे स्वर्गीय नेताओं ने हार-जीत का भरपूर स्वाद चखा। पर, अपनी राजनीतिक शुचिता को बचाये रखा। अजय टंडन के ताऊ स्व. रूपनारायण टंडन भी इसी श्रेणी में आते हैं।
३ वर्ष पहले तक दमोह के धनी-धोरी रहे जयंत मलैया की तरह अजय टंडन भी गंभीर और लोक प्रिय नेता हैं। अजय टंडन, जयंत मलैया से अधोपतन के बारे बहुत कुछ सीख सकते हैं। अजय टंडन के बब्बा चाचा (प्रभुनारायण टंडन) की धाकड़ राजनीति का एक किस्सा याद आता है। पीएन टंडन, पं. श्यामाचरण शुक्ल के मंत्रिमंडल में थे। मुख्यमंत्री के एक सगे रिश्तेदार का कोई नियमानुसार काम शिक्षा विभाग में अटका पड़ा था। खुद मुख्यमंत्री संबंधित अधिकारियों से लेकर शिक्षामंत्री तक से कई बार कह चुके थे। हार-थक उन्होंने अपने नातेदार को टंडन जी के पास भेज दिया। टंडन जी ने शिक्षा मंत्री को फोन पर (इस लेखक के सामने) कहा-अवस्थी जी, आप से विभाग नहीं संभलता तो रिजाईन क्यों नहीं कर देते। शाम को सीएम का नातेदार जब आदेश लेकर सीएम हाऊस पहुंचा तो मुख्यमंत्री ने फोन करके टंडन जी को धन्यवाद दिया और आभार माना। अजय, इसी टंडन परिवार से हैं। भाजपा शासनकाल में दमोह जिला अनेक स्थानीय और शासकीय-प्रशासकीय समस्याओं से परेशान है। किसानों को बोनी के ऐन समय पर भी खाद की किल्लत मची है। लोकायुक्त के लगातार छापे बताते हैं कि सरकारी दफ्तरों में रिश्वत दिये बिना जनता के नियमानुसार काम भी नहीं होते। मानवीय संवेदना को झकझोर देने वाली एक घटना तो जिला प्रशासन के साथ ही जनप्रतिनिधियों (जिनमें अब अजय टंडन भी शामिल हैं) को भी शर्मसार करने वाली है। शासकीय जिला चिकित्सालय में भरती एक गंभीर रोगी का शव, जिला अस्पताल के द्वार पर लावारिश पड़ा था, जिस पर पशु-पक्षी मंडरा रहे थे। यह हमारे जिले में स्वास्थ्य विभाग का आलम है। दमोह में करोड़ों रूपये खर्च होने के बाद भी पेयजल की किल्लत साल भर बनी रहती है। अजय टंडन को इन सारी समस्याओं से रूबरू होकर, इन्हें हर हाल में दूर करने का प्रयास करना होगा, क्योंकि वे जिला मुख्यालय के विधायक हैं। समाज में बदनाम छवि वाले अपने सहयोगियों तक से उन्हें यथासंभव दूरी बनाकर रखनी होगी ताकि उनकी लोकप्रियता बनी रहे।
केवल धरना, आंदोलन और चक्काजाम से समस्याएं हल नहीं होगी। उन्हें हल करने के स्थानीय जनप्रतिनिधियों की गंभीरता, साथ ही उनका जुझारूपन और व्यक्तित्व का शासन-प्रशासन के कर्मचारियों, अधिकारियों पर क्या और कैसा प्रभाव पड़ता है। यह भी काफी कुछ काउंट करता है। उनके तर्क पूर्ण विचार, बातचीत का लहजा, खुद को प्रस्तुत करने का तरीका, उनकी बातचीत का ढंग-लहजा और खुद को अभिव्यक्त करने के तरीके से बड़ी-बड़ी समस्याएं सुलझाई जा सकती हैं, जिन्हें विभागीय मंत्री तक हल नहीं कर पाते, उन्हें योग्य और कुशल जनप्रतिनिधि चुटकियों में सुलझा लेते हैं।
जनता जानती और मानती है कि कांग्रेस विधायक रहते अजय टंडन भाजपा की राज्य और केन्द्रीय सरकार से विकास की कोई बड़ी सौगात नहीं दिला सकते। पर, स्थानीय स्तर पर वे जनहित के अनेक छोटे-छोटे कार्य करा सकते हैं। सरकारी दफ्तरों में जनता के छोटे-छोटे और नियमानुसार काम कराना उन्हें कठिन नहीं है। गड्ढों से भरी बर्बाद सड़कें आज भी बदहाल हैं और अच्छी-भली बनी बनाई सड़कों पर नई परतें बिछाई जा रही हैं, यह सब कमीशन बाजी का खेल है। जहां कोई जरूरत नहीं, वहां नालियों का निर्माण कर दिया और जहां जरूरी है, उसे छोड़ दिया गया। अजय टंडन की एक बहुत उम्दा पहल के लिये उन्हें धन्यवाद दिया जाना चाहिये। महाराणा प्रताप चौक से कीर्ति स्तंभ की सडक के चौड़ीकरण और इसे मॉडल सड़क बनाने का उनका प्रस्ताव, समय की आवश्यकता है। १५ माह को छोड़, भाजपा 2० साल से दमोह पर राज कर रही है। भाजपा के स्थानीय नेताओं को इस तंग सड़क की दुर्दशा क्यों नहीं दिखी?
